इंतज़ार
एक
बार फ़िर,
हां
फिर से उम्मीदों के महल सजाए थे।
ख्वाबों
की डोर का एक छोर
तुम्हारी उँगली से बांधा था
दूसरा
छोर
मुझ तक आते-आते कहीं उलझ गया...
डोर
तो सीधी थी,
शायद रास्ते बहुत भटके हुए थे।
तुम्हारी
आंखों के कोरों से निकलकर चली थी मेरी खुशी
शायद
आती होगी आजकल में
सोचते
हुए एक उम्र गुज़र गई।
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